तपन सुशील
गढ़वाली बोली है,भाषा नहीं। बिना व्याकरण के बोली भाषा नहीं बन सकती है। इन विचारों को हाल में बाल अधिकार संरक्षण आयोग के पूर्व अध्यक्ष योगेंद्र खंडूड़ी ने एक बहस का मुद्दा बनाया है। उन्होंने कहा कि पौड़ी गढ़वाल जनपद में प्राइमरी कक्षाओं में गढ़वाली को सीखने को लेकर पाठ्य पुस्तके लगी हुई हैं,लेकिन चूंकि गढ़वाली का मानक व प्रामाणिक व्याकरण उपलब्ध नहीं है तो सरकार का गढ़वाली पढ़ाने का प्रयास व्यर्थ जाएगा। उन्होंने गढ़वाली व्याकरण बनाने हेतु एक सरकारी समिति गठित करने की वकालत की है।
इंडो-आर्यन भाषा श्रेणी में गढ़वाली,ब्राह्मी भाषाओं के समूह में आती है जो अल्फासिलैबिक लिपि यानि वर्तमान की देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। कहा जाता है कि 10वीं शताब्दी से उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में ये संपर्क बोली बन चुकी थी और 17वीं शताब्दी के आते-आते इसमें गढ़वाली साहित्य भी लिखा जाने लगा था। हालांकि 19 और 20वीं शताब्दी का गढ़वाली में लिपिबद्ध हुआ साहित्य ही अब आसानी से उपलब्ध है।जिसमे लोक कथाएं, लोकगीत,धार्मिक नाटक एवं लोक गीत प्रमुखता में है। इसी दौर में, यह जन सामान्य से लेकर राजकाज की भाषा भी बनी,जब-जब गढ़वाल के राजाओं ने इसे अपनी राज भाषा बनाया।
वर्तमान में गढ़वाली की 8 उपबोलियां हैं। जहां एक ओर अपने अति समृद्ध शब्द संकलन और विन्यास को लेकर गढ़वाली एक अनोखी बोली है वहीं यूनेस्को इसे आज विश्व की तेजी से लुप्त होने वाली भाषा में गिनता है।
इस भाषा की अनुपम समृद्धता एवं संप्रेरणा शक्ति का एक उदाहरण इसके गंध हेतु प्रयुक्त पर्यायवाची शब्दों में इतना मिल जाएगा,अन्यत्र किसी भाषा या बोली में देखने को नही मिलता। मसलन खिखराण(धुंए वाली),किराण(ऊनी वस्त्र के जलने से), कुतराण (सूती वस्त्र के जलने पर),कुमराण (बाल के जलने से),चिराण (मूत्र से), गुआंण (मल से), कौंखाण (पुराने अनाज से आने वाली दुर्गन्ध), सडयाण (सड़े हुए पदार्थ की), पितलैन (पीतल के संपर्क से उत्पन्न तिक्ता की गंध), कुकराण (कुत्ते की दुर्गंध) आदि।
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अगस्त 2011 में गढ़वाल के तत्कालीन सांसद सतपाल महाराज ने भी संसद में गढ़वाली भाषा को सविंधान की 8वीं अनुसूची में सम्मिलित करने के लिए एक विधेयक लाये थे। यदि उनका यह प्रयास सफल हो जाता तो गढ़वाली भाषा का निसंदेह कद एवं सम्मान बढ़ जाता। लेकिन इस भाषा के सम्मान,स्वीकार्यता एवं व्यापकता की बढ़ोतरी को लेकर इसके आंदोलनकारियों ने यदि इसकी लिपि के विकास की ओर भी चिंता की होती तो गढ़वाली देश के संविधान की अनुसूचित 22 भाषाओं में एक भाषा होती। यह आज तक मात्र बोली बन कर जी रही है क्योंकि इसकी कोई आधिकारिक लिपि नही है। यह सिर्फ देवनागरी लिपि में लिखी जाती है।
बिना अपनी लिपि के कोई भी बोली सिर्फ बोली ही बन कर रह जाती है। आज भोजपुरी,ब्रजभाषा,अवधि, हरियाणवी,राजस्थानी, बुंदेलखंडी आदि मात्र बोलिया बन कर रह गयी। जबकि इनमें समृद्ध एवं विपुल साहित्य उपलब्ध है। चूंकि इनका साहित्य देवनागरी में लिखा जाता है जो कि हिंदी की एक लिपि है, ये सब हिंदी की उप-बोलियां मात्र बन कर रह गयी है। वहीं 15वीं शताब्दी के आसपास वजूद में आई गुरमुखी, जिसका उदगम भी उत्तर भारत से है, संविधान की 8वीं अनुसूची में दशकों पूर्व अपना स्थान बना चुकी है।
आज गढ़वाली भाषा के पंडितों को चाहिए कि वे इसके व्याकरण के साथ-साथ इसकी एक अलग लिपि भी विकसित करें। जैसे गुरमुखी को विकसित करने में शारदा, टाकरी,डोगरी,कश्मीरी, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं की वर्णमालाओं का सहारा लिया गया। गढ़वाली भाषा की वर्णमाला के विकास के लिए उत्तर एवं दक्षिण भारत की भाषाओं से मदद ली जा सकती है। वैसे भी इस बोली में भारतीय सभी भाषाओं के कोई ना कोई शब्द अवश्य सुनने को मिल जाता है। अगर व्याकरण किसी भाषा की रीढ है तो लिपि उसके शरीर का वैशिष्ट्य अलंकरण (जेवर) है। लिपि रचना का काम आसान नहीं है लेकिन मुश्किल भी नही। गढ़वाली भाषा पंडितों को गढ़वाली को विश्व पटल पर स्थापित करने के लिए इस बात की चिंता अवश्य करनी चाहिए। जिससे भावी पीढ़ी को एक संपूर्ण भाषा लिखने और पढ़ने को मिले।
(लेखक द टाइम्स ऑफ इंडिया,रुड़की से वरिष्ठ पत्रकार हैं।)